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MAN KI BAAT : भारत के समेकित और समग्र विकास का रास्ता गांवों के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से ही निकलेगा...लिहाजा इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने होंगे। शिक्षा की नीति को शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और अनिवार्य सदस्य के रूप में पुन: स्थान देने में.....

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नियुक्तियां चाहे अध्यापकों की हों प्रधानाचार्यों की स्थिति कमोबेश अधिकांश राज्यों में ऐसी ही है। कोई भी शिक्षा व्यवस्था इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकेगी कि स्कूल कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो प्रथम स्थान पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति नियमित प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध होना ही चाहिए।

जगमोहन सिंह राजपूत। विश्व में कोरोना के पश्चात शिक्षा के रूप-स्वरूप के त्वरित बड़े बदलाव की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। शिक्षा की गतिशीलता उसका आवश्यक अंग है, लेकिन कोरोना के विस्तार ने शिक्षा में 'क्या पढ़ाया जाए और कैसे पढ़ाया जाए' के संपूर्ण क्षितिज को अप्रत्याशित ढंग से बदल दिया है। पूरी दुनिया ने कठिन स्थिति को लगभग दो वर्ष झेला है और अभी भी अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है। इस दौरान सबसे अधिक हानि बच्चों और युवाओं को हुई है। उनके व्यक्तित्व विकास और सीखने के अधिगम में जो कमियां आई हैं, उसकी भरपाई करने के प्रयास अब और अधिक ऊर्जा के साथ हो रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के क्रियान्वयन के प्रयास इन सारी स्थितियों को पूरी तरह समझकर किए जा रहे हैैं। अत: हर वर्ग की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। अगले दो वर्षों में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में भारत कितना सफल होगा। इस समय देश में 1.508 करोड़ स्कूल हैैं। इनमें लगभग 97 लाख अध्यापक हैैं। 26.5 करोड़ बच्चे स्कूलों में हैं, जिनमें 1.87 करोड़ यानी 62 प्रतिशत प्रारंभिक स्कूलों में हैं। मोटे तौर पर अनुमान यह है कि करीब दस लाख से अधिक स्कूल अध्यापकों के पद रिक्त हैं। स्कूली शिक्षा में एक बड़ी चुनौती यह है कि वर्ष 2006 के बाद के 15 वर्षों में सरकारी स्कूलों में 15 प्रतिशत नामांकन कम हुआ है, जिसे आबादी की वृद्धि के अनुपात में बढऩा चाहिए था। भारत के समेकित और समग्र विकास का रास्ता गांवों के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से ही निकलेगा। लिहाजा इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने होंगे।


पिछले कुछ दशकों से शिक्षा में कुछ ऐसी स्थितियां उभरी हैं, जिनके समाधान अनेक प्रयासों तथा आश्वासनों के पश्चात भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। प्रशिक्षित तथा नियमित अध्यापकों की नियुक्ति इसमें संभवत: सबसे जटिल समस्या के रूप में सामने आ रही है। दिल्ली के शिक्षा सुधारों की चर्चा पिछले कई वर्षों से हमारे सामने आती रही है। वहां के 1,027 सरकारी स्कूलों में सिर्फ 203 में नियमित प्रधानाचार्य नियुक्त हैं। अन्य में अस्थायी प्रधानाचार्य के द्वारा ही स्कूल संचालित हो रहे हैं। यह दिल्ली सरकार की स्थिति है, जहां कितने ही लोग फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था का अवलोकन और अध्ययन करने जा चुके हैं।


वैसे नियुक्तियां चाहे अध्यापकों की हों, प्रधानाचार्यों या प्राचार्यों की, स्थिति कमोबेश अधिकांश राज्यों में ऐसी ही है। कोई भी शिक्षा व्यवस्था इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकेगी कि स्कूल कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो, प्रथम स्थान पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति नियमित, प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध होना ही चाहिए। शैक्षिक नेतृत्व को विकसित करने का उत्तरदायित्व केंद्र और राज्य सरकारों को प्राथमिकता के साथ स्वीकार करना चाहिए।


अध्यापकों को लेकर जो चुनौती स्कूलों के समक्ष है, उतनी ही या उससे भी अधिक जटिल चुनौती उच्च शिक्षा संस्थानों के समक्ष भी है। दिल्ली के प्रतिष्ठित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में डाक्टरों के एक तिहाई पद रिक्त हैं। जो नए एम्स देश में खुले हैं, उनकी स्थिति का अंदाजा इसी लगा सकते हैैं। यही हाल केंद्रीय विश्वविद्यालयों का भी है। राज्य सरकारों के उच्च शिक्षा संस्थान इससे भी बड़ी मुश्किल में परिचालन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालय केवल शिक्षा ही दे रहा हो या शिक्षा और शोध, दोनों पर कार्य कर रहा हो, उससे गुणवत्ता की अपेक्षा व्यर्थ ही होगी। यदि छात्र-अध्यापक अनुपात स्वीकार्य स्तर पर आ जाए तो शोध की गुणवत्ता और नवाचार स्वत: ही बढ़ जाएंगे। साफ है भारत को पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए इसकी बौद्धिक संपदा को बढ़ाना होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने अध्यापकों के संबंध में अत्यंत आशाजनक टिप्पणी की है कि 'शिक्षा व्यवस्था में किए जा रहे बुनियादी बदलावों के केंद्र में अवश्य ही शिक्षक होने चाहिए। शिक्षा की नीति को शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और अनिवार्य सदस्य के रूप में पुन: स्थान देने में सहायता करनी होगी, क्योंकि शिक्षक ही नागरिकों की हमारी अगली पीढ़ी को सही मायने में आकार देते हैं।' ऐसा कहा तो अनेक बार गया है, लेकिन अब इसे ईमानदारी से व्यावहारिकता में परिवर्तित करना ही होगा।


किसी भी पीढ़ी को सजग, सतर्क, जिज्ञासु और क्रियाशील बनाने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त समय प्रारंभिक आयु के वे संवेदनशील वर्ष होते हैं, जिनमें कक्षा दस तक की शिक्षा प्राप्त की जाती है। जापान, जर्मनी जैसे देश द्वितीय विश्व युद्ध में भीषण तबाही और अपमानित स्थिति से अपनी भावी पीढिय़ों को सही ढंग से तैयार करके ही आज की अनुकरणीय स्थिति में पहुंच सके हैं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा और अध्यापकों के प्रशिक्षण तथा नियुक्ति पर सबसे अधिक ध्यान दिया। बच्चों को समय का महत्व बताया, परिश्रम की आवश्यकता समझाई। बच्चों के समक्ष देश के लिए संपूर्ण समर्पण तथा बलिदान करने वालों की शौर्य गाथाएं रखीं। अध्यापकों ने अपने उत्तरदायित्व समझे कि वे देश के भविष्य का निर्माण कर रहे हैैं, केवल वेतन प्राप्ति के लिए कोई नौकरी नहीं कर रहे। वे जानते रहे कि अपने बच्चों के लिए वे आचार्य हैं, अनुकरणीय हैं, आइकान हैं। वे अपने आचरण से बच्चों को जीवन मूल्य सिखा रहे हैं। परिणामस्वरूप आज समय की पाबंदी और उत्पाद की गुणवत्ता के संबंध में जापान की वैश्विक स्तर पर सराहना की जाती है। यह रास्ता जो भी देश अपनाएगा, वह परिवर्तन की अपेक्षित सार्थकता अवश्य ही प्राप्त कर लेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले छह महीनों में देश में हर स्तर पर अध्यापकों और संस्थाध्यक्षों के सभी पद भरे जा सकेंगे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का संपूर्ण क्रियान्वयन तभी से प्रारंभ होगा।

     लेखक - जगमोहन सिंह राजपूत

(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

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